
विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
गढ़वाल के प्रवेश द्वार, कोटद्वार की सबसे व्यस्त गलियों में से एक — गोखले मार्ग। यहाँ दोनों ओर फड़-सब्जी वालों की आवाजें, चहलकदमी और शाम के वक्त खचाखच भरी भीड़ हर पल जीवंतता बिखेरती है। इसी गलियों के बीचोंबीच, एक बड़ा सा भवन है जिसकी एक खिड़की सीधे गोखले मार्ग की ओर खुलती है।
उस खिड़की से झंड़ाचौक, लैंसडौन घाटी और उस भीड़-भाड़ भरे शहर के जीवन के रंग दिखते हैं। यह वही खिड़की है जहां से प्रतिभाशाली फोटो जर्नलिस्ट कमल जोशी शहर को देखते थे, अपने कैमरे के लेंस से पहाड़ की कहानियां कहते थे। उस खिड़की पर एक पोस्टर लगा रहता था एक ग्रामीण बालिका की तस्वीर। वह तस्वीर कमल जोशी ने खींची थी, जिसमें एक मासूम बच्ची की आंखों में पहाड़ की कड़वाहट और सपनों का उजाला दोनों झलकते हैं।
उस तस्वीर के माध्यम से कमल की खिड़की केवल एक जगह नहीं, बल्कि एक दर्पण बन गई थी जो ग्रामीण जीवन की सच्चाई को शहर के बीचोंबीच लेकर आती थी। लेकिन अब वह खिड़की कम खुलती है। कमल जोशी के जाने के बाद जैसे उस खिड़की के परदे भी थम गए हों।
कमल जोशी की फोटोग्राफी केवल तस्वीरें नहीं, बल्कि पहाड़ की मौन भाषा थी उसकी बोलती तस्वीरें। वे सिर्फ एक फोटोग्राफर नहीं थे, बल्कि एक संवेदनशील दृष्टा थे, जो कैमरे के माध्यम से उन अनकहे दर्दों, संघर्षों और खुशियों को दुनिया के सामने लाते थे जिन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
उनका जीवन एक लंबा सफर था कुमाऊं और गढ़वाल की दुर्गम घाटियों से होते हुए, जहां पैदल यात्राएं, कंधे पर पिठ्ठू, हाथ में कैमरा, उनकी दिनचर्या थी। उनकी तस्वीरों में न केवल पर्वतीय सौंदर्य था, बल्कि उस क्षेत्र के लोगों की आत्मा, उनकी लड़ाई, उनकी अकेलापन, और उनकी सांस्कृतिक विरासत की छवि भी थी।
कमल जोशी की तस्वीरों में पहाड़ केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं था, बल्कि एक जीवंत कहानी थी। बर्फ से ढके गांव, अकेली महिलाएं, बच्चों की मासूम मुस्कान, बूढ़े कंधों पर बोझ, और एकांत में बसी पीड़ा हर तस्वीर कुछ कहती थी। वे कैमरे के जरिए ऐसी कहानियां कहते थे, जो शब्दों से कहीं अधिक गहराई लिए होती थीं।
कुछ साल पहले उनकी आकस्मिक निधन ने उत्तराखंड को स्तब्ध कर दिया। कमल जोशी न केवल एक फोटोग्राफर थे, बल्कि एक दस्तावेजी रचनाकार, जिन्होंने पहाड़ की सच्चाई को अपनी संवेदनशीलता के साथ कैद किया। उनकी यादें, उनके तस्वीरें, और उनके यात्रा वृत्तांत “चल मेरे पिठ्ठू, दुनिया देखें” आज भी उस धरोहर की गवाही देते हैं जो उन्होंने छोड़ी।
कमल जोशी अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी दृष्टि, उनकी संवेदनशीलता और उनकी कला हमेशा उत्तराखंड के आसमान में चमकती रहेगी, कभी किसी बूढ़े पहाड़ी की आँखों में, कभी किसी बच्चे की मुस्कान में, और कभी उन धुंधलाते रास्तों में जहाँ उनके पदचिन्ह आज भी जिंदा हैं। वे पहाड़ की आत्मा थे, जिन्हें उनके कैमरे ने अमर कर दिया।
कमल जोशी एक ऐसा नाम है जिसने उत्तराखंड की धरती से उपजे सौंदर्य को कैमरे की नजर से देखा और उसे दुनिया के सामने लाने का बीड़ा उठाया। उनकी घुमक्कड़ी केवल सैर-सपाटे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैचारिक यात्रा है जो उन्हें ग्रामीण भारत के दिल की धड़कनों तक ले जाती है।
विशेष रूप से उनकी आराकोट-असकोट यात्रा न केवल एक साहसिक अभियान थी, बल्कि ग्रामीण जीवन की सहजता, कठिनाइयों और संस्कृति को जानने-समझने का एक संजीदा प्रयास भी थी। कमल जोशी की फोटोग्राफी किसी प्रोफेशनल लेंस के पीछे छिपी तकनीक मात्र नहीं है, बल्कि उनके अनुभवों, यात्राओं और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।
वे कैमरे के माध्यम से उन हिस्सों को पकड़ते हैं, जो आमतौर पर अनदेखे रह जाते हैं, जैसे पहाड़ी महिलाओं के चेहरे पर झलकता संघर्ष, ग्रामीण बच्चों की आंखों में छिपी जिज्ञासा, या किसी दूरस्थ गांव की धूलभरी पगडंडियों पर चलती ज़िंदगी। उनकी तस्वीरें एक मौन भाषा बोलती हैं, एक ऐसी भाषा जिसमें न प्रकृति चुप है और न ही मनुष्य।
आराकोट से असकोट तक की यह पैदल यात्रा उत्तराखंड के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों से की गई, जहां आज भी विकास की बयार धीरे चलती है। यह यात्रा न केवल भौगोलिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। कमल जोशी ने इस यात्रा के माध्यम से उन गांवों को देखा, जहां आज भी लोग पारंपरिक जीवनशैली में जीते हैं, जहां आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की सुविधा एक सपना है।
कमल जोशी एक ऐसा नाम, एक ऐसा व्यक्तित्व थे, जिन्हें एक बार जो भी मिला, वह उन्हें कभी भुला नहीं पाया। उनके भीतर एक आकर्षण, एक अपनापन था, जो हर किसी को उनसे जोड़ देता था। उनकी मधुर स्मृतियां आज भी उनके प्रशंसकों के हृदय में जीवंत हैं।
वे जहां भी जाते चाहे किसी छोटे से गांव की गलियों में या किसी चाय की दुकान पर लोग उनके सहज व्यवहार और सरल व्यक्तित्व के मुरीद बन जाते। कमल जोशी न सिर्फ एक संवेदनशील मनुष्य थे, बल्कि एक बेहतरीन छायाकार भी। उन्होंने हिमालय की गोद में बसे गांवों, वहां की जीवनशैली, पर्यावरण, वन्य जीव-जंतुओं और प्रकृति की अद्भुत छवियों को अपने कैमरे में बेहद संवेदनशीलता के साथ कैद किया।
उनका कैमरा सिर्फ दृश्य नहीं, भावनाएं भी उतारता था। वर्ष 2014 की प्रसिद्ध नंदा राजजात यात्रा से लौटने के बाद, उन्होंने अपने अनुभवों को एक भावनात्मक यात्रा संस्मरण के रूप में सोशल मीडिया पर साझा किया, जिसका शीर्षक था ‘मेरी अनुष्का भी रहती है हिमालय के उस पार’। इस संस्मरण में एक ग्रामीण युवती की छवि को उन्होंने इतनी आत्मीयता और सौंदर्य के साथ उकेरा कि पाठक उस चरित्र से जुड़ाव महसूस करने लगे।
यह रचना न केवल उनकी लेखनी की संवेदनशीलता को दर्शाती है, बल्कि ग्रामीण परिवेश की गहराई से की गई उनकी समझ का प्रमाण भी है। बाद में उनके संस्मरण, कविताएं और लेखों को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया, जो आज भी उनके चाहने वालों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।